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Saturday, March 19, 2011

होली का इतिहास (बुराइयों के अंत का प्रतीक)

होली का इतिहास (बुराइयों के अंत का प्रतीक)


होली
होली
होली के अवसर पर गुलाल से रंगीन चेहरा।


होली वसंत ऋतु में मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण भारतीय त्योहार है। यह पर्व हिंदू पंचांग के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। रंगों का त्योहार कहा जाने वाला यह पर्व पारंपरिक रूप से 2 दिन मनाया जाता है। पहले दिन को होलिका जलायी जाती है, जिसे होलिका दहन भी कहते है। दूसरे दिन, जिसे धुरड्डी, धुलेंडी, धुरखेल या धूलिवंदन कहा जाता है, लोग एक दूसरे पर रंगअबीर-गुलाल इत्यादि लगते हैं, ढोल बजा कर होली के गीत गाये जाते हैं, और घर-घर जा कर लोगों को रंग लगाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि होली के दिन लोग पुरानी कटुता को भूल कर गले मिलते हैं और फिर से मित्र बन जाते हैं। एक दूसरे को रंगने और गाने-बजाने का क्रम दोपहर तक चलता है। इसके बाद स्नान कर के विश्राम करने के बाद नए कपड़े पहन कर शाम को लोग एक दूसरे के घर मिलने जाते हैं, गले मिलते हैं और मिठाइयाँ खिलाते हैं।[१]
राग-रंग का यह लोकप्रिय पर्व वसंत का संदेशवाहक भी है।[२] राग अर्थात संगीत और रंग तो इसके प्रमुख अंग हैं ही, पर इनको उत्कर्ष तक पहुँचाने वाली प्रकृति भी इस समय रंग-बिरंगे यौवन के साथ अपनी चरम अवस्था पर होती है। फाल्गुन माह में मनाए जाने के कारण इसे फाल्गुनी भी कहते हैं। होली का त्योहार वसंत पंचमी से ही आरंभ हो जाता है। उसी दिन पहली बार गुलाल उड़ाया जाता है। इस दिन सेफाग और धमार का गाना प्रारंभ हो जाता है। खेतों में सरसों खिल उठती है। बाग-बगीचों में फूलों की आकर्षक छटा छा जाती है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और मनुष्य सब उल्लास से परिपूर्ण हो जाते हैं। खेतों में गेहूँ की बालियाँ इठलाने लगती हैं। किसानों का ह्रदय ख़ुशी से नाच उठता है। बच्चे-बूढ़े सभी व्यक्ति सब कुछ संकोच और रूढ़ियाँ भूलकर ढोलक-झाँझ-मंजीरों की धुन के साथ नृत्य-संगीत व रंगों में डूब जाते हैं। चारों तरफ़ रंगों की फुहार फूट पड़ती है।[३] यह एक अत्यंत प्राचीन धार्मिक, सामाजिक उत्सव है जिसका उद्देश्य : धार्मिक निष्ठा, व उत्सव, मनोरंजन द्वारा सांस्कृतिक परम्पराओं को जीवित रखना है।  
होली भारत का अत्यंत प्राचीन पर्व है जो होली, होलिका या होलाका[४] नाम से मनाया जाता था। वसंत की ऋतु में हर्षोल्लास के साथ मनाए जाने के कारण इसे वसंतोत्सव और काम-महोत्सव भी कहा गया है।
राधा-श्याम गोप और गोपियो की होली
अधिकतर यह पूर्वी भारत में ही मनाया जाता था। इस पर्व का वर्णन अनेक पुरातन धार्मिक पुस्तकों में मिलता है। इनमें प्रमुख हैं, जैमिनी के पूर्व मीमांसा-सूत्र और कथा गार्ह्य-सूत्र। नारद पुराण औऱ भविष्य पुराण जैसे पुराणों की प्राचीन हस्तलिपियों और ग्रंथों में भी इस पर्व का उल्लेख मिलता है। विंध्य क्षेत्र के रामगढ़ स्थान पर स्थित ईसा से ३०० वर्ष पुराने एक अभिलेख में भी इसका उल्लेख किया गया है। संस्कृत साहित्य में वसन्त ऋतु और वसन्तोत्सव अनेक कवियों के प्रिय विषय रहे हैं।
सुप्रसिद्ध मुस्लिम पर्यटक अलबरूनी ने भी अपने ऐतिहासिक यात्रा संस्मरण में होलिकोत्सव का वर्णन किया है। भारत के अनेक मुस्लिम कवियों ने अपनी रचनाओं में इस बात का उल्लेख किया है कि होलिकोत्सव केवल हिंदू ही नहीं मुसलमान भी मनाते हैं। सबसे प्रामाणिक इतिहास की चित्रावली हैं मुगल काल की और इस काल में होली के किस्से उत्सुकता जगाने वाले हैं। अकबर का जोधाबाई के साथ तथा जहाँगीर का नूरजहाँ के साथ होली खेलने का वर्णन मिलता है। अलवर संग्रहालय के एक चित्र में जहाँगीर को होली खेलते हुए दिखाया गया है।[५] शाहजहाँ के समय तक होली खेलने का मुग़लिया अंदाज़ ही बदल गया था। इतिहास में वर्णन है कि शाहजहाँ के ज़माने में होली को ईद-ए-गुलाबी या आब-ए-पाशी (रंगों की बौछार) कहा जाता था।[६] अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र के बारे में प्रसिद्ध है कि होली पर उनके मंत्री उन्हें रंग लगाने जाया करते थे।[७] मध्ययुगीन हिन्दी साहित्य में दर्शित कृष्ण की लीलाओं में भी होली का विस्तृत वर्णन मिलता है।
इसके अतिरिक्त प्राचीन चित्रों, भित्तिचित्रों और मंदिरों की दीवारों पर इस उत्सव के चित्र मिलते हैं। विजयनगर की राजधानी हंपी के १६वी शताब्दी के एक चित्रफलक पर होली का आनंददायक चित्र उकेरा गया है। इस चित्र में राजकुमारों और राजकुमारियों को दासियों सहित रंग और पिचकारी के साथ राज दम्पत्ति को होली के रंग में रंगते हुए दिखाया गया है। १६वी शताब्दी की अहमदनगर की एक चित्र आकृति का विषय वसंत रागिनी ही है। इस चित्र में राजपरिवार के एक दंपत्ति को बगीचे में झूला झूलते हुए दिखाया गया है। साथ में अनेक सेविकाएँ नृत्य-गीत व रंग खेलने में व्यस्त हैं। वे एक दूसरे पर पिचकारियों से रंग डाल रहे हैं। मध्यकालीन भारतीय मंदिरों के भित्तिचित्रों और आकृतियों में होली के सजीव चित्र देखे जा सकते हैं। उदाहरण के लिए इसमें १७वी शताब्दी की मेवाड़ की एक कलाकृति में महाराणा को अपने दरबारियों के साथ चित्रित किया गया है। शासक कुछ लोगों को उपहार दे रहे हैं, नृत्यांगना नृत्य कर रही हैं और इस सबके मध्य रंग का एक कुंड रखा हुआ है। बूंदी से प्राप्त एक लघुचित्र में राजा को हाथीदाँत के सिंहासन पर बैठा दिखाया गया है जिसके गालों पर महिलाएँ गुलाल मल रही हैं।[८]
भगवान नृसिंह द्वारा हिरण्यकशिपु का वध
होली के पर्व से अनेक कहानियाँ जुड़ी हुई हैं। इनमें से सबसे प्रसिद्ध कहानी है प्रह्लाद की। माना जाता है कि प्राचीन काल में हिरण्यकशिपु नाम का एक अत्यंत बलशाली असुर था। अपने बल के दर्प में वह स्वयं को ही ईश्वर मानने लगा था। उसने अपने राज्य में ईश्वर का नाम लेने पर ही पाबंदी लगा दी थी। हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रह्लाद ईश्वर भक्त था। प्रह्लाद की ईश्वर भक्ति से क्रुद्ध होकर हिरण्यकशिपु ने उसे अनेक कठोर दंड दिए, परंतु उसने ईश्वर की भक्ति का मार्ग न छोड़ा। हिरण्यकशिपु की बहन होलिका को वरदान प्राप्त था कि वह आग में भस्म नहीं हो सकती। हिरण्यकशिपु ने आदेश दिया कि होलिका प्रह्लाद को गोद में लेकर आग में बैठे। आग में बैठने पर होलिका तो जल गई, पर प्रह्लाद बच गया। ईश्वर भक्त प्रह्लाद की याद में इस दिन होली जलाई जाती है।[९] प्रतीक रूप से यह भी माना जाता है कि प्रह्लाद का अर्थ आनन्द होता है। वैर और उत्पीड़न की प्रतीक होलिका (जलाने की लकड़ी) जलती है और प्रेम तथा उल्लास का प्रतीक प्रह्लाद (आनंद) अक्षुण्ण रहता है।[१०]
प्रह्लाद की कथा के अतिरिक्त यह पर्व राक्षसी ढुंढीराधा कृष्ण के रास और कामदेव के पुनर्जन्म से भी जुड़ा हुआ है।[११] कुछ लोगों का मानना है कि होली में रंग लगाकर, नाच-गाकर लोग शिव के गणों का वेश धारण करते हैं तथा शिव की बारात का दृश्य बनाते हैं। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि भगवान श्रीकृष्ण ने इस दिन पूतना नामक राक्षसी का वध किया था। इसी खु़शी में गोपियों और ग्वालों ने रासलीला की और रंग खेला था।[१२]

परंपराएँ

होली के पर्व की तरह इसकी परंपराएँ भी अत्यंत प्राचीन हैं, और इसका स्वरूप और उद्देश्य समय के साथ बदलता रहा है। प्राचीन काल में यह विवाहित महिलाओं द्वारा परिवार की सुख समृद्धि के लिए मनाया जाता था और पूर्ण चंद्र की पूजा करने की परंपरा थी। । वैदिक काल में इस पर्व को नवात्रैष्टि यज्ञ कहा जाता था। उस समय खेत के अधपके अन्न को यज्ञ में दान करके प्रसाद लेने का विधान समाज में व्याप्त था। अन्न को होला कहते हैं, इसी से इसका नाम होलिकोत्सव पड़ा। भारतीय ज्योतिष के अनुसार चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन से नववर्ष का भी आरंभ माना जाता है। इस उत्सव के बाद ही चैत्र महीने का आरंभ होता है। अतः यह पर्व नवसंवत का आरंभ तथा वसंतागमन का प्रतीक भी है। इसी दिन प्रथम पुरुष मनु का जन्म हुआ था, इस कारण इसे मन्वादितिथि कहते हैं।[१३]

होलिका दहन
होली का पहला काम झंडा या डंडा गाड़ना होता है। इसे किसी सार्वजनिक स्थल या घर के आहाते में गाड़ा जाता है। इसके पास ही होलिका की अग्नि इकट्ठी की जाती है। होली से काफ़ी दिन पहले से ही यह सब तैयारियाँ शुरू हो जाती हैं। पर्व का पहला दिन होलिका दहन का दिन कहलाता है। इस दिन चौराहों पर व जहाँ कहीं अग्नि के लिए लकड़ी एकत्र की गई होती है, वहाँ होली जलाई जाती है। इसमें लकड़ियाँ और उपले प्रमुख रूप से होते हैं। कई स्थलों पर होलिका में भरभोलिए[१४] जलाने की भी परंपरा है। भरभोलिए गाय के गोबर से बने ऐसे उपले होते हैं जिनके बीच में छेद होता है। इस छेद में मूँज की रस्सी डाल कर माला बनाई जाती है। एक माला में 7 भरभोलिए होते हैं। होली में आग लगाने से पहले इस माला को भाइयों के सिर के ऊपर से 7 बार घूमा कर फेंक दिया जाता है। रात को होलिका दहन के समय यह माला होलिका के साथ जला दी जाती है। इसका यह आशय है कि होली के साथ भाइयों पर लगी बुरी नज़र भी जल जाए।[१४] लकड़ियों व उपलों से बनी इस होली का दोपहर से ही विधिवत पूजन आरंभ हो जाता है। घरों में बने पकवानों का यहाँ भोग लगाया जाता है। दिन ढलने पर ज्योतिषियों द्वारा निकाले मुहूर्त पर होली का दहन किया जाता है। इस आग में नई फसल की गेहूँ की बालियों और चने के होले को भी भूना जाता है। होलिका का दहन समाज की समस्त बुराइयों के अंत का प्रतीक है। यह बुराइयों पर अच्छाइयों की विजय का सूचक है। गाँवों में लोग देर रात तक होली के गीत गाते हैं तथा नाचते हैं।
सार्वजनिक होली मिलन
होली से अगला दिन धूलिवंदन कहलाता है। इस दिन लोग रंगों से खेलते हैं। सुबह होते ही सब अपने मित्रों और रिश्तेदारों से मिलने निकल पड़ते हैं। गुलाल और रंगों से सबका स्वागत किया जाता है। लोग अपनी ईर्ष्या-द्वेष की भावना भुलाकर प्रेमपूर्वक गले मिलते हैं तथा एक-दूसरे को रंग लगाते हैं। इस दिन जगह-जगह टोलियाँ रंग-बिरंगे कपड़े पहने नाचती-गाती दिखाई पड़ती हैं। बच्चे पिचकारियों से रंग छोड़कर अपना मनोरंजन करते हैं। सारा समाज होली के रंग में रंगकर एक-सा बन जाता है। रंग खेलने के बाद देर दोपहर तक लोग नहाते हैं और शाम को नए वस्त्र पहनकर सबसे मिलने जाते हैं। प्रीति भोज तथा गाने-बजाने के कार्यक्रमों का आयोजन करते हैं।
होली के दिन घरों में खीर, पूरी और पूड़े आदि विभिन्न व्यंजन पकाए जाते हैं। इस अवसर पर अनेक मिठाइयाँ बनाई जाती हैं जिनमें गुझियों का स्थान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। बेसन के सेव और दहीबड़े भी सामान्य रूप से उत्तर प्रदेश में रहने वाले हर परिवार में बनाए व खिलाए जाते हैं। कांजीभांग और ठंडाई इस पर्व के विशेष पेय होते हैं। पर ये कुछ ही लोगों को भाते हैं। इस अवसर पर उत्तरी भारत के प्रायः सभी राज्यों के सरकारी कार्यालयों में अवकाश रहता है, पर दक्षिण भारत में उतना लोकप्रिय न होने के कारण से इस दिन सरकारी संस्थानों में अवकाश नहीं रहता ।

विशिष्ट उत्सव

भारत में होली का उत्सव अलग-अलग प्रदेशों में भिन्नता के साथ मनाया जाता है। ब्रज की होली आज भी सारे देश के आकर्षण का बिंदु होती है। बरसाने की लठमार होली[१५] काफ़ी प्रसिद्ध है। इसमें पुरुष महिलाओं पर रंग डालते हैं और महिलाएँ उन्हें लाठियों तथा कपड़े के बनाए गए कोड़ों से मारती हैं। इसी प्रकार मथुरा औरवृंदावन में भी १५ दिनों तक होली का पर्व मनाया जाता है। कुमाऊँ की गीत बैठकी[१६] में शास्त्रीय संगीत की गोष्ठियाँ होती हैं। यह सब होली के कई दिनों पहले शुरू हो जाता है। हरियाणा की धुलंडी में भाभी द्वारा देवर को सताए जाने की प्रथा है। बंगाल की दोल जात्रा[१७] चैतन्य महाप्रभु के जन्मदिन के रूप में मनाई जाती है। जलूस निकलते हैं और गाना बजाना भी साथ रहता है। इसके अतिरिक्त महाराष्ट्र की रंग पंचमी[१८] में सूखा गुलाल खेलने, गोवा के शिमगो[१९] में जलूस निकालने के बाद सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन तथा पंजाब के होला मोहल्ला[२०] में सिक्खों द्वारा शक्ति प्रदर्शन की परंपरा है। तमिलनाडु की कमन पोडिगई[२१] मुख्य रूप से कामदेव की कथा पर आधारित वसंतोतसव है जबकि मणिपुर के याओसांग[२२] में योंगसांग उस नन्हीं झोंपड़ी का नाम है जो पूर्णिमा के दिन प्रत्येक नगर-ग्राम में नदी अथवा सरोवर के तट पर बनाई जाती है। दक्षिण गुजरात के आदिवासियों के लिए होली सबसे बड़ा पर्व है, छत्तीसगढ़ की होरी[२३] में लोक गीतों की अद्भुत परंपरा है और मध्यप्रदेश के मालवा अंचल के आदिवासी इलाकों में बेहद धूमधाम से मनाया जाता है भगोरिया[२४], जो होली का ही एक रूप है। बिहार का फगुआ[२५] जम कर मौज मस्ती करने का पर्व है और नेपाल की होली[२६] में इस पर धार्मिक व सांस्कृतिक रंग दिखाई देता है। इसी प्रकार विभिन्न देशों में बसे प्रवासियों तथा धार्मिक संस्थाओं जैसे इस्कॉन या वृंदावन के बांके बिहारी मंदिर में अलग अलग प्रकार से होली के शृंगार व उत्सव मनाने की परंपरा है जिसमें अनेक समानताएँ और भिन्नताएँ हैं।

साहित्य में होली

प्राचीन काल के संस्कृत साहित्य में होली के अनेक रूपों का विस्तृत वर्णन है। श्रीमद्भागवत महापुराण में रसों के समूह रास का वर्णन है। अन्य रचनाओं में 'रंग' नामक उत्सव का वर्णन है जिनमें हर्ष की प्रियदर्शिका व रत्नावली[क] तथा कालिदास की कुमारसंभवम् तथा मालविकाग्निमित्रम् शामिल हैं। कालिदास रचित ऋतुसंहार में पूरा एक सर्ग ही 'वसन्तोत्सव' को अर्पित है। भारविमाघ और अन्य कई संस्कृत कवियों ने वसन्त की खूब चर्चा की है। चंद बरदाई द्वारा रचित हिंदी के पहले महाकाव्यपृथ्वीराज रासो में होली का वर्णन है। भक्तिकाल और रीतिकाल के हिन्दी साहित्य में होली और फाल्गुन माह का विशिष्ट महत्व रहा है। आदिकालीन कवि विद्यापति से लेकर भक्तिकालीन सूरदासरहीमरसखानपद्माकर[ख] , जायसीमीराबाईकबीर और रीतिकालीन बिहारीकेशवघनानंद आदि अनेक कवियों को यह विषय प्रिय रहा है। महाकवि सूरदास ने वसन्त एवं होली पर 78 पद लिखे हैं। पद्माकर ने भी होली विषयक प्रचुर रचनाएँ की हैं।[२७] इस विषय के माध्यम से कवियों ने जहाँ एक ओर नितान्त लौकिक नायक नायिका के बीच खेली गई अनुराग और प्रीति की होली का वर्णन किया है, वहीं राधा कृष्ण के बीच खेली गई प्रेम और छेड़छाड़ से भरी होली के माध्यम से सगुण साकार भक्तिमय प्रेम और निर्गुण निराकार भक्तिमय प्रेम का निष्पादन कर डाला है।[२८] सूफ़ी संत हज़रत निज़ामुद्दीन औलियाअमीर खुसरो और बहादुर शाह ज़फ़र जैसे मुस्लिम संप्रदाय का पालन करने वाले कवियों ने भी होली पर सुंदर रचनाएँ लिखी हैं जो आज भी जन सामान्य में लोकप्रिय हैं।[६]आधुनिक हिंदी कहानियों प्रेमचंद की राजा हरदोल, प्रभु जोशी की अलग अलग तीलियाँतेजेंद्र शर्मा की एक बार फिर होली, ओम प्रकाश अवस्थी की होली मंगलमय होतथा स्वदेश राणा की हो ली में होली के अलग अलग रूप देखने को मिलते हैं। भारतीय फ़िल्मों में भी होली के दृश्यों और गीतों को सुंदरता के साथ चित्रित किया गया है। इस दृष्टि से शशि कपूर की उत्सवयश चोपड़ा की सिलसिलावी शांताराम की झनक झनक पायल बाजे और नवरंग इत्यादि उल्लेखनीय हैं।[२९]

संगीत में होली

भारतीय शास्त्रीय, उपशास्त्रीय, लोक तथा फ़िल्मी संगीत की परम्पराओं में होली का विशेष महत्व है। शास्त्रीय संगीत में धमार का होली से गहरा संबंध है, हाँलाँकि ध्रुपद, धमार, छोटे व बड़े ख्याल औरठुमरी में भी होली के गीतों का सौंदर्य देखते ही बनता है। कथक नृत्य के साथ होली, धमार और ठुमरी पर प्रस्तुत की जाने वाली अनेक सुंदर बंदिशें जैसे चलो गुंइयां आज खेलें होरी कन्हैया घर आज भी अत्यंत लोकप्रिय हैं। ध्रुपद में गाये जाने वाली एक लोकप्रिय बंदिश है खेलत हरी संग सकल, रंग भरी होरी सखी। भारतीय शास्त्रीय संगीत में कुछ राग ऐसे हैं जिनमें होली के गीत विशेष रूप से गाए जाते हैं।बसंतबहारहिंडोल और काफ़ी ऐसे ही राग हैं। होली पर गाने बजाने का अपने आप वातावरण बन जाता है और जन जन पर इसका रंग छाने लगता है। उपशास्त्रीय संगीत में चैतीदादरा और ठुमरी में अनेक प्रसिद्ध होलियाँ हैं। होली के अवसर पर संगीत की लोकप्रियता का अंदाज़ इसी बात से लगाया जा सकता है कि संगीत की एक विशेष शैली का नाम ही होली हैं, जिसमें अलग अलग प्रांतों में होली के विभिन्न वर्णन सुनने को मिलते है जिसमें उस स्थान का इतिहास और धार्मिक महत्व छुपा होता है। जहां ब्रजधाम में राधा और कृष्ण के होली खेलने के वर्णन मिलते हैं वहीं अवध में राम और सीता के जैसे होली खेलें रघुवीरा अवध में। राजस्थान के अजमेर शहर में ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर गाई जाने वाली होली का विशेष रंग है। उनकी एक प्रसिद्ध होली है आज रंग है री मन रंग है,अपने महबूब के घर रंग है री।[३०] इसी प्रकार शंकर जी से संबंधित एक होली में दिगंबर खेले मसाने में होली कह कर शिव द्वारा श्मशान में होली खेलने का वर्णन मिलता हैं।[३१] भारतीय फिल्मों में भी अलग अलग रागों पर आधारित होली के गीत प्रस्तुत किये गए हैं जो काफी लोकप्रिय हुए हैं। 'सिलसिला' के गीत रंग बरसे भीगे चुनर वाली, रंग बरसे और 'नवरंग' के आया होली का त्योहार, उड़े रंगों की बौछार, को आज भी लोग भूल नहीं पाए हैं।

आधुनिकता का रंग

होली रंगों का त्योहार है, हँसी-खुशी का त्योहार है, किन्तु होली के भी अनेक रूप देखने को मिलते है। प्राकृतिक रंगों के स्थान पर रासायनिक रंगों का प्रचलन, भांग-ठंडाई की जगह नशेबाजी और लोक संगीत की जगह फ़िल्मी गानों का प्रचलन इसके कुछ आधुनिक रूप हैं।[३२] किन्तु इससे होली पर गाए-बजाए जाने वाले ढोल, मंजीरों, फाग, धमार, चैती और ठुमरी की शान में कमी नहीं आती। अनेक लोग ऐसे हैं जो पारंपरिक संगीत की समझ रखते हैं और पर्यावरण के प्रति सचेत हैं। इस प्रकार के लोग और संस्थाएँ चंदन, गुलाबजल, टेसू के फूलों से बना हुआ रंग तथा प्राकृतिक रंगों से होली खेलने की परंपरा को बनाए हुए हैं, साथ ही इसके विकास में महत्वपूर्ण योगदान भी दे रहे हैं।[३३] रासायनिक रंगों के कुप्रभावों की जानकारी होने के बाद बहुत से लोग स्वयं ही प्राकृतिक रंगों की ओर लौट रहे हैं।[३४] होली की लोकप्रियता का विकसित होता हुआ अंतर्राष्ट्रीय रूप भी आकार लेने लगा है। बाज़ार में इसकी उपयोगिता का अनुमान गत वर्ष होली के अवसर पर एक अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठान केन्ज़ोआमूर द्वारा जारी किए गए नए इत्र होली है  से लगाया जा सकता है।[३५]

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Monday, January 17, 2011

बेहदियनख्लाम मेघालय का जीवन्त उत्सव----------------------------विश्वमोहन तिवारी, एयर वाइस मार्शल (सेवा निवृत्त)

भारत जब तक इतिहास को जीता था भारत था,'इंडिया' बन,इतिहास भूलने व बिगाड़ने की पतन की राह चलने लगा !आओ मिलकर इसे बनायें- तिलक

बेहदियनख्लाम

मेघालय का जीवन्त उत्सव


हमारा पूर्वांचल अभी तक सुन्दर रहस्यों से भरा पड़ा है। उसमें भी मेघालय मानो रहस्य को छिपाने वाले मेघों से अधिकतर आच्छादित रहता है। शायद इसीलिए मेघालय घूमने में दुहरा आनन्द आता है पहली बार तो रहस्य में गुंथे सौंदर्य का और दूसरी बार उस सौंदर्य में गुंथे रहस्य का।

भारतीय संस्कृति में जीवन में उल्लास और आनन्द लाने के लिए त्योहारों और उत्सवों की भरमार है। यह दुख की बात है कि महानगरों के लोग संस्कृति के अन्य अंगों की तरह त्योहारों और उत्सवों को या तो भुलाते जा रहे हैं या उन्हें वे अब मात्र अपने सोफे पर बैठकर कांच के पर्दे पर दिखाए जाने वाले नकली क्रिया कलापों को देखकर मनाते हैं। जिस तरह भोजन का स्वाद पर्दे पर भोजन को देखने से नहीं आ सकता, उसी तरह उत्सवों का आनन्द पर्दों पर देखने से नहीं आ सकता। संगीत का आनन्द तो टीवी के पर्दे के द्वारा लिया जा सकता है, किन्तु सावन के झूले का आनन्द! किन्तु कभी कभी हम उत्सवों में सक्रिय भाग नहीं ले सकते हैं, तब उन उत्सवों में जाकर, उनके बीच रहकर, देखने का भी एक आनन्द तो है, चाहे वह ‘सक्रिय’ द्वारा प्राप्त न हो, किन्तु सतरंगी पर्दे से अधिक हृदयग्राही होता है।

मेघालय के पूर्वी हिस्से में मुख्यतया जयंतिया जनजाति रहती है। इनका एक उत्सव है ‘बेहदियनख्लाम’। इसका भावार्थ है बीमारियों तथा गरीबी को वृक्षों तथा प्रकृति की सहायता से दूर भगाना। हजारों वर्षों से यह उत्सव प्रति वर्ष वर्षा ऋतु में खेतों में बोनी करने के बाद मनाया जाता है। जयंतिया क्षेत्र का एक प्रमुख नगर है जवई जो शिलांग से 64 किलोमीटर दूरी पर है। हमारे यहां प्रकृति के साथ एक होकर रहने की, उसके साथ उत्सव मनाने की सुदीर्घ सुस्थापित परंपरा है, जिसे महानगरी लोग पश्चिमी भोगवादी संस्कृति के संलिष्ट जीवन के दबाव में आकर भुलाते जा रहे हैं, किन्तु पूर्वांचल में वे परंपराएं अभी भी जीवन्त हैं।

अपने जयंतिया मित्र श्री रिम्बई के अनुरोध पर मैं सपत्नीक जवई पहुंचा इस उत्सव का आनन्द लेने। जैसे ही मेरी कार ने जवई में प्रवेश किया तो लोगों की चहल­पहल से ही उनकी उमंग स्पष्ट दिखाई दी। लोग रंग बिरंगे कई मंजिलों वाले एक ऊंचे झांकी स्तम्भ को कंधों पर लेकर चल रहे थे। वह झांकी बहुत सुन्दर तो थी किन्तु उसमें किसी भी देवी या देवता का चित्र या मूत्र्ति नहीं थी। जुलूस एक पवित्र ताल की तरफ जा रहा था। जब हम श्री रिम्बई के घर पहुंचे तब उनके बड़े भाई तथा भाभी ने ‘खुब्लै’ ह्यअर्थात भगवान का आशीर्वाद आपके साथ रहेहृ कहकर हम लोगों का स्वागत किया। उन दोनों के चेहरों पर आतिथ्य सत्कार की खुशी चमक रही थी। जवई जैसी सुदूर जगह में रहते हुए भी श्रीमती रिम्बई बनारसी जरी की सुन्दर साड़ी पहने हुए थीं। वे हमारे साथ बैठी ही थीं कि बाहर से किसी ने आवाज दी। उन्होंने छांग अर्थात चावल से बनी हुई हल्की मदिरा का पात्र उठाया और बाहर गईं। मैं भी उत्सुकतावश साथ गया। तीन युवक एक वृक्ष की हरी भरी डालियां उनके दरवाजे पर लगा रहे थे। श्रीमती रिम्बई ने शुभकामनाओं के साथ उन्हें आधा आधा गिलास छांग दी जिसे पीने के बाद ‘खुब्लै’ कहकर वे चल दिये।

बाहर सड़क पर भीड़ बढ़ रही थी। जुलूस झांकी स्तम्भ लिए जा रहा था। पूछने पर श्री रिम्बई ने बतलाया कि खासी लोग निराकार भगवान में विश्वास करते हैं इसलिए झांकी में भगवान की मूर्ति या चित्र नहीं है। वे आगे बोले, “आज का त्योहार भगवान तथा प्रकृति से अपनी फसल की संवृद्धि की प्रार्थना का तथा दुष्ट आत्माओं से अपनी रक्षा की प्रार्थना का त्योहार है। हम लोग प्रकृति की पूजा करते हैं। वे ऐसे बहुत से कारणों को जो या तो बीमारी पैदा करते हैं, या मानसिक संताप, ‘दुष्ट आत्मा’ के अन्तर्गत अभिव्यक्त करते हैं। और उन्होंने अनुभव किया है कि प्रकृति से एकरूप होने से वे बीमारियां या संताप दूर हो जाते हैं। हजारों वर्षों से वृक्षों और वनों से अपनी समृद्धि की प्रार्थना करते हैं, जब कि पाश्चात्य संसार को वनों का महत्त्व आज उन्हें खोने के बाद मालूम हो रहा है।

तीन बज चुके थे और समारोह चार बजे से प्रारम्भ होने वाला था, इसलिए हम लोग अपने घर से निकल पड़े। रास्ते में भीड़ और उसका उत्साह कुछ वैसा ही था जैसा कि ‘पूजा’ में दुर्गा की मूर्ति विसर्जन के लिए ले जाते समय होता है या कि महाराष्ट्र में गणेश विसर्जन के समय। वह भीड़ थी आनन्द की जिसमें डूबते उतराते हम लोग बह रहे थे।

जब हम लोग उत्सव स्थल पर पहुंचे तो उस अनोखे वातावरण को देखकर मैं चकित हो गया ­ इतने सारे लोग, इतना उत्साह, इतनी हिम्मत ­ क्योंकि तब तक पानी भी बरसने लगा था, लेकिन कोई भाग नहीं रहा था, हां थोड़ी संख्या में छाते अवश्य खुले थे। वह पवित्र छोटा ताल चारों तरफ कई पहाड़ियों से घिरा था और लोगों के झुण्ड उन पहाड़ियों पर रंगीन फूलों के समान बिखरे दिख रहे थे। आठ झांकियां पहुंच चुकी थीं और कुछ आ रही थीं। स्पष्ट था कि कलकत्ते की दुर्गापूजा तथा मुम्बई की गणेश पूजा जैसा भ्रष्ट आधुनिकीकरण अभी जयंतिया में नहीं पहुँचा था।

चार बजे उस पवित्र ताल में, पुजारियों ने मंत्रोचार के साथ प्रवेश करते हुए उत्सव का समारम्भ किया। फिर उन्होंने लम्बे बांसों से उस ताल के पानी को पीटते हुए दुष्ट आत्माओं को भगाया। पहली झांकी वाले लोगों ने उस ताल में परिक्रमा हेतु प्रवेश किया और उनके साथ उनके समूह ने भी। वे लोग उस पानी को अपने ऊपर तो छिड़क ही रहे थे, किन्तु दूसरों पर भी डाल रहे थे और कुछ लोग तो उसमें डुबकी भी लगा रहे थे जो कि कई दूष्टियों से बड़ी हिम्मत का काम था। एक तो उस ताल में इतने अधिक आदमी थे कि उसमें पानी देखना मुश्किल था। दूसरे, सभी लोग उस घुटने घुटने पानी में तेजी से परिक्रमा लगा रहे थे। और तीसरे, उस पानी का इतना मंथन हो गया था कि वह पंकमय हो गया था। केवल दीर्घ अनुभव संपुष्ट श्रद्धा ही उन्हें इतना साहस दे सकती थी। तीन परिक्रमाओं के बाद उस झांकी स्तम्भ को लगभग दो सौ गज दूर तक छोटी सी नदी में विसर्जन हेतु ले जाया गया। पूजा की यही प्रक्रिया सभी झांकियों ने उल्लासपूर्वक मनाई। वे सारे लोग, उस पवित्र ताल में प्रवेश करते ही मानों उल्लास की ऊर्जामय तरंगों में परिणित हो जाते थे।

इतने में मैंने देखा कि किसी वृक्ष के कोई तीस फुट लम्बे तने को गरिमापूर्वक लेकर एक जुलूस उस ताल में लाया। उसे देखते ही सारे लोगों ने उनके लिए वह स्थान एकदम खाली कर दिया। बाद में, अन्य लोग उस ताल में आते गए कि जब तक वह ताल लोगों से लबालब भर नहीं गया। फिर मंत्रोच्चार के साथ उस खम्भे को ताल बीच में, येन केन प्रकारेण, लाया गया। लग रहा था कि वह खम्बा मानों विशाल और शक्तिशाली अस्त्र है जो सब लोगों की दुष्टों से रक्षा करने में सक्षम है। फिर उस शक्ति के प्रतीक को आड़ा किया गया। ताल की उस दुर्दमनीय भीड़ में यह सारे कार्य इतने अनुशासित ढंग से हो रहे थे कि मुझे बहुत अचरज हो रहा था। फिर दोनों दलों के लोगों ने उस खम्बे को आधा आधा पकड़ा और उस खम्बे के साथ रस्सा कशी शुरू हो गई। प्रत्यक्ष रूप से यह दृश्य लघु समुद्र­मंथन सा लग रहा था किन्तु उनमें देवों और दानवों का विभाजन नहीं था। उसमें से विष तो तनिक भी न निकला हां आनन्द रूपी अमृत अवश्य निकल रहा था ­ एक कलश भर नहीं वरन ­ एक फुहारे के रूप में। मुझे लगा कि बेहदियनख्लाम के इस एक उत्सव में हमारे तीन उत्सवों ­ बंगाल की दुर्गा पूजा, जगन्नाथ पुरी की रथ यात्रा तथा उत्तर भारत की होली ­ का पुण्य और आनन्द समाया था। इस उत्सव में जयंतिया के कमिश्नर से लेकर किसान तक, सभी स्तर के लोग, पूरा पूरा भाग ले रहे थे।

लौटते समय मेरी पत्नी ने कहा ह्ययह सच है, साहित्यिक कल्पना नहींहृ, “ये खासी जयंतिया लोग बड़े अजीब हैं जो उस तालाब के कीचड़ में लथपथ होकर खुश हो रहे थे। मैंने कहा, “तुम जानती हो कि मेघालय में वर्ष में नौ माह वर्षा होती है, और पहाड़ी होने के बाद भी यहां वहां कीचड़ हो जाती है। जब तक यहां के रहने वाले आदमी वर्षा, तालाब, मिट्टी, कीचड़ जैसी जीवनदायिनी शक्तियों से आत्मीय सम्बन्ध स्थापित नहीं करेंगे, दुखी रहेंगे, प्रकृति के साथ एकरस नहीं होंगे, तब तक ऊपर कैसे उठेंगे! यह जल तथा मिट्टी अभी पाश्चात्य सभ्यता से प्रदूषित नहीं हुई है। इसमें स्वाभाविक औषध गुण हैं जिनका लाभ इन प्रकृति प्रेमियों को मिलता है। प्राकृतिक चिकित्सा में मिट्टी स्नान का बहुत महत्त्व है। प्रकृति की जीवनदायिनी शक्तियों से विरोध या अलगाव कैसा? यही अलगाव तो दुखों और हताशाओं को जन्म देता है। हमारी संस्कृति की यही तो शक्ति है कि वह प्रकृति से, परिवेश से हमारी आत्मीयता स्थापित करती है। हममें कत्र्तव्यों के प्रति प्रेम और निठा पनपाती है और हमारे जीवन में आनन्द और उल्लास की वर्षा करती है। जयंतिया के लोग अपनी संस्कृति की कृपा से अपनी मिट्टी की गंध और वर्षा के गहरे स्पर्श के साथ बहुत आनन्द के साथ रहते हैं।किन्तु कब तक?


­143, सै . 21, नौएडा 201301

Thursday, December 2, 2010

खुदीराम बोस

खुदीराम बोस भारत को कुचल रहे ब्रिटिश पर जो पहला बम था, इस राष्ट्र नायक ने फैंका था,स्कूल में भी वह वन्दे मातरम जैसे पवित्र शब्दों की ओर आकर्षित था ! '(मैं भारत माता के चरणों में शीश नवाता हूँ !) और आजादी के युद्ध में कूद पड़े. 16 वर्ष का लड़का पुलिस अवज्ञा कर 19 वर्ष की आयु में जब वह बलिदान हुआ उसके हाथों में एक पवित्र पुस्तक भागवद गीता (देवी गीत) के साथ उसके होठों पर था वंदे मातरम का नारा.--लेखक ! यह अवसर था, फरवरी 1906 में एक भव्य प्रदर्शनी की बंगाल में मेदिनीपुर में व्यवस्था की गयी थी. उद्देश्य तो भारत के ब्रिटिश शासक के भारत में अन्याय को छिपाने का था. प्रदर्शनी पर कठपुतलिया और चित्र थे, जो धारणा बना सकते है कि विदेशी ब्रिटिश शासक भारत के लोगों की सहायता कर रहे थे! प्रदर्शनी देखने के लिए वहाँ बड़ी भीड़ थी ! तब, विज्ञप्ति शीर्षक 'सोनार बांग्ला' के साथ वंदे 'मातरम् नारा लिए पत्रक के एक बंडल के साथ 16 वर्ष का एक लड़का दिखाई दिया, वह पत्रक उन लोगों को वितरण किया गया. इसके अतिरिक्त यह प्रदर्शनी लगाने में अंग्रेजों का असली उद्देश्य यह भी पत्रक में बताया गया. तथा ब्रिटिश अन्याय और अत्याचार के विभिन्न रूपों का खुलासा भी !प्रदर्शनी के लिए आगंतुकों के अतिरिक्त, वहाँ कुछ एक इंग्लैंड के राजा के प्रति वफादार भी थे. उन लोगों ने अंग्रेजों के अन्याय उजागर करने का विरोध किया ! वंदे मातरम् जैसे शब्द '(स्वतंत्रता) और' स्वराज्य '(आत्म शासन) उन्हें पिन और सुई की तरह चुभते थे. वे पत्रक वितरण से लड़के को रोकने का प्रयास किया. उनकी आँखें गुस्से से लाल, वे लड़के पर गुर्राए glared, उसे डांटा और उसे धमकाते किया बवाल. लेकिन उन्हें अनदेखा कर लड़का शांति से पत्रक वितरण करता चला गया. जब कुछ लोगों ने उस पर कब्जा करने का प्रयास किया, वह चालाकी से भाग निकले. अंतत: एक पुलिसकर्मी के हाथ की पकड़ लड़के पर पद गई वह पत्रक का बंडल भी खींच लिया. लेकिन पकड़ने के लिए लड़का इतना आसान नहीं था. वह अपने हाथ झटकाता मुक्त हुआ. फिर वह हाथ लहराया और पुलिस वाले की नाक पर शक्तिशाली वार किया. फिर वह पत्रक भी अधिकार में ले लिया, और कहा, "ध्यान रखो, कि मेरे शरीर को स्पर्श नहीं! मैं देखता हूँ  आप मुझे कैसे एक वारंट के बिना गिरफ्तार कर सकते हैं!."वो झटका प्राप्त पुलिस वाला फिर आगे बढ़ा, लेकिन लड़का वहाँ नहीं था. वह भीड़ के बीच गायब हो गया था.चाय पान के समय, लोगों के रूप में वंदे 'मातरम् तूफान से पुलिस और राजा के प्रति वफादार भी अपमानित और आश्चर्य से भरे दुखी थे.बाद में एक मामला लड़के के विरुद्ध दर्ज किया गया था, लेकिन अदालत ने उसे लड़के कि कम आयु के आधार पर निर्धारित किया है.जो वीर लड़का इतना बहादुरी से मेदिनीपुर प्रदर्शनी में पत्रक वितरित कर गया और जिससे अंग्रेजों की कुत्सित चालों को हराया खुदीराम बोस था.खुदीराम बोस का जन्म 3 दिसम्बर 1889 को मेदिनीपुर जिले के गांव बहुवैनी में हुआ था. उनके पिता त्रैलोक्य नाथ बसु नादाज़ोल राजकुमार के शहर के तहसीलदार थे. उसकी माँ लक्ष्मी प्रिया देवी जो अपने धार्मिक जीवन और उदारता के लिए एक पवित्र औरत अधिक जानी जाती थी. हालांकि घर में कुछ बच्चों पैदा हुए थे सब की जन्म के बाद शीघ्र ही मृत्यु हो गई. केवल एक बेटी बच गई. अंतिम बच्चा, खुदीराम बोस, एकमात्र जीवित बेटा था.
बोस परिवार को एक नर बच्चे की चाह थी. लेकिन लंबे समय के लिए उनके आनंद की आयु पर्याप्त नहीं रह सकी. वे अप्रत्याशित रूप से मर गया जब खुदीराम मात्र 6 वर्ष था. उसकी बड़ी बहन अनुरुपा देवी और जीजाजी अमृतलाल ने उसे पालने की जिम्मेदारी कंधे पर ली थी. अनुरुपा देवी ने एक माँ के स्नेह के साथ खुदीराम का पालन कियावह चाहती थी, उसका छोटा भाई अत्यधिक शिक्षित, एक उच्च पद पाने के बाद नाम हो! वह इसलिए उसे पास के एक स्कूल में भर्ती कराया.  ऐसा नहीं था कि खुदीराम नहीं सीख सकता थावह कुशाग्र था और चीजों को आसानी से समझ सकता थालेकिन उसका ध्यान अपनी कक्षा में पाठ के लिए नहीं लगाया जा सका. हालांकि उनके शिक्षकों ने अपनी आवाज के शीर्ष पर चिल्लाया, वह सबक नहीं सुना. सबक से पूरी तरह से असंबंधित विचार उसके सिर में घूमते रहे थे जन्म से एक देशभक्त, खुदीराम बोस ने 7-8 वर्ष की आयु में भी सोचा, ' भारत हमारा देश है. यह एक महान देश है. हमारे बुजुर्गों का कहना है कि यह सहस्त्रों वर्षों से ज्ञान का केंद्र है. तो क्रोधित ब्रिटिश यहाँ क्यों हो ? उनके अधीन, हमारे लोग भी जिस रूप में वे चाहते नहीं रह सकते. बड़ा होकर, मैं किसी तरह उन्हें देश से बाहर खदेड़ दूंगा 'पूरे दिन लड़का इन विचारों में लगा था. इस प्रकार जब वह पढ़ने के लिए एक किताब खोले, उसे एक क्रोधित ब्रिटिश की हरी आंखों का सामना करना पड़ा. यहां तक कि जब वह खा रहा था, वही याद उसका पीछा करती रही और स्मृति उसके दिल में एक अजीब सा दर्द लाई. उसकी बहन और उसके जीजा दोनों ने सोचा लड़का परेशान क्यों है ? उन्होंने सोचा कि उसकी माँ की स्मृति उसे परेशान किया है, और उसे अधिक से अधिक स्नेह दिया. किन्तु खुदीराम भारत माता के बारे में दुखी था. उसकी पीड़ा में दिन पर दिन वृद्धि हुई. 
गुलामी से बदतर रोग न कोय ?एक बार खुदीराम एक मंदिर में गया था. कुछ व्यक्ति मंदिर के सामने बिना आसन जमीन पर लेट रहे थे. "क्यों लोग बिना आसन जमीन पर लेट रहे हैं", खुदीराम ने कुछ व्यक्तियों से पूछा, उनमें से एक ने विस्तार से बताया: "वे किसी न किसी बीमारी से पीड़ित हैं व एक मन्नत मानी है और भोजन और पानी के बिना यहाँ पड़ रहेंगे जब तक भगवान उनके सपने में दिखकर रोग ठीक करने का वादा नहीं देता ..."खुदीराम एक पल के लिए सोचा और कहा, "एक दिन मुझे भी तप करने के लिए भूख और प्यास भुला कर और इन लोगों की तरह जमीन पर बिना आसन लेटना होगा.""आपको क्या रोग है?" एक आदमी ने लड़के से पूछा! खुदीराम हँसे, और कहा, "गुलामी से बदतर रोग न कोय ? हमें इसे बाहर खदेढ़ना होगा ."कितनी  कम उम्र में भी, खुदीराम ने इतनी गहराई से देश की स्वतंत्रता के बारे में सोचा था. लेकिन वह इसे कैसे प्राप्त करे ? यह समस्या हमेशा उस के मन को घेरे रखती थी . वह सफलतापूर्वक कैसे अपने कर्तव्य पूरा कर सकता है? इस प्रकार चिंतित खुदीराम से एक दिन का नाद सुना 'वंदे मातरम', 'भारत माता की जय' (विजय मदर इंडिया के लिए). वह इन शब्दों से रोमांचित था, उसकी आँखें चमकने लगी और वह आनंद का अनुभव किया.
पत्रकारिता व्यवसाय नहीं एक मिशन है-युगदर्पण भारत जब तक इतिहास को जीता था भारत था,'इंडिया' बन,इतिहास भूलने व बिगाड़ने की पतन की राह चलने लगा !आओ मिलकर इसे बनायें- तिलक

Saturday, September 11, 2010

आत्मग्लानी नहीं स्वगौरव का भाव जगाएं, विश्वगुरु

आत्मग्लानी नहीं स्वगौरव का भाव जगाएं, विश्वगुरु  मैकाले व वामपंथियों से प्रभावित कुशिक्षा से पीड़ित समाज का एक वर्ग, जिसे देश की श्रेष्ठ संस्कृति, आदर्श, मान्यताएं, परम्पराएँ, संस्कारों का ज्ञान नहीं है अथवा स्वीकारने की नहीं नकारने की शिक्षा में पाले होने से असहजता का अनुभव होता है! उनकी हर बात आत्मग्लानी की ही होती है! स्वगौरव की बात को काटना उनकी प्रवृति बन चुकी है! उनका विकास स्वार्थ परक भौतिक विकास है, समाज शक्ति का उसमें कोई स्थान नहीं है! देश की श्रेष्ठ संस्कृति, परम्परा व स्वगौरव की बात उन्हें समझ नहीं आती! 
 किसी सुन्दर चित्र पर कोई गन्दगी या कीचड़ के छींटे पड़ जाएँ तो उस चित्र का क्या दोष? हमारी सभ्यता  "विश्व के मानव ही नहीं चर अचर से,प्रकृति व सृष्टि के कण कण से प्यार " सिखाती है..असभ्यता के प्रदुषण से प्रदूषित हो गई है, शोधित होने के बाद फिर चमकेगी, किन्तु हमारे दुष्ट स्वार्थी नेता उसे और प्रदूषित करने में लगे हैं, देश को बेचा जा रहा है, घोर संकट की घडी है, आत्मग्लानी का भाव हमे इस संकट से उबरने नहीं देगा. मैकाले व वामपंथियों ने इस देश को आत्मग्लानी ही दी है, हम उसका अनुसरण नहीं निराकरण करें, देश सुधार की पहली शर्त यही है, देश भक्ति भी यही है !
भारत जब विश्वगुरु की शक्ति जागृत करेगा, विश्व का कल्याण हो जायेगा !

भारत जब तक इतिहास को जीता था भारत था,
'इंडिया' बन,इतिहास भूलने व बिगाड़ने की
 पतन की राह चलने लगा !
आओ मिलकर इसे बनायें- तिलक

Saturday, May 29, 2010

आस्था की डोर – चैरा

हिम का आंचल यानि हिमाचल के कुल्लू-मनाली, शिमला, डलहौजी आदि विख्यात पर्यटन स्थलों को तो आम तौर पर सैलानी जानते ही हैं लेकिन इस हिमाचल में कहीं कुछ ऐसे भी अनछुए स्थल हैं जहां सैलानी अभी तक नहीं पहुंच पाए हैं। ऐसे ही एक स्थल पर मुझे पिछले साल जून में जाने का मौका मिला। इस स्थल का नाम है “चैरा” देव माहूँनाग का मूल स्थान ।इस स्थान की विशेषता यह है कि यहां स्थित माहूँनाग जी के मन्दिर का दरवाजा हर महिने की संक्रांति को ही खुलता है और यही नहीं उसे खोलने के लिये बकरे की बलि भी देनी पड़ती है यह जानकर मन में बहुत उत्सुकता हुई और हमने संक्रांति के समय वहां जाने का प्रोग्राम बनाया 1 यह स्थान हिमाचल प्रदेश के मंडी जिले के करसोग उपमंडल में है। तो चलिए चलते हैं चैरा की अविस्मणीय यात्रा पर। जो रहस्य, रोमांच, मस्ती, व साहस से परिपूर्ण है।
                                                                         मंडी
हमारी यात्रा शुरू होती है मंडी शहर से । व्यास नदी के किनारे स्थित ये मंडी शहर कुल्लू मनाली के रास्ते में ही है। मंडी से हमने अपनी यात्रा टाटा सूमों पर शुरू की। क्योंकि जिस स्थान पर हम जा रहे थे वहां छोटी कार ले जाना संभव नहीं था। यात्रा में जोखिम और कठिनाईयां भी होंगी , इसकी जानकारी हमने तभी हासिल कर ली थी जब हम चैरा घूमने का प्रोग्राम बना रहे थे। यह एक पारिवारिक यात्रा थी और हमारे साथ 4 छोटे बच्चे भी थे जिनकी आयु 5 से 13 तक की थी। सफर शुरू हुआ , धीरे धीरे गंतव्य की ओर कदम बढ़ने लगे । करीब 30 कि.मी. के सफर के बाद बहुत ही सुन्दर गांव आया “चैल चौक” यहाँ पर चील के हरे भरे जंगल दिखे तो शिथिल पड़ी आँखों को तरलता का भान हुआ । वहाँ पर चाय पीकर आगे की यात्रा आरम्भ की । धीरे धीरे गाड़ी उस पहाड़ी रास्ते पर चल रही थी और हमारी आँखें खिड़की से बाहर प्राकृतिक सुन्दरता की गलियों में विचरण कर रही थी । गर्मियों के दिन थे सूरज अपने पूरे सरूर पर था परंतु कहीं पर वृक्ष इतने घने थे कि सूरज की किरणें भी उनसे रास्ता मांगती प्रतीत होती थी । आगे एक के बाद एक ठहराव आते गये जिनमें चुराग,पांगणा,चिंडी आदि प्रमुख हैं । चिन्डी का रेस्ट हाऊस एक ऐसा आराम गृह है जो शरीर के साथ साथ रूह को भी सकून देता है क्योंकि यहां चारों ओर देखने पर नैसर्गिक सुन्दरता नज़र आती है । अब धीरे धीरे गंतव्य से दूरी घटने लगी थी और मंजिल को देखने की चाहत बढ़ने लगी थी क्योंकि अभी तक वो अनदेखा स्थान सिर्फ हमारी कल्पनाओं में था और जैसे कल्पना का पंछी झट से उड़ कर गगन को छू लेना चाहता है वैसे ही हमारा मन भी उस स्थान से जुड़े पहलुओं को जानने के लिये बेचैन था । अंत में हम करसोग पहुँच जाते हैं और वहां पर स्थित ममलेश्वर महादेव और कामाक्षा देवी के दर्शन करते हैं । सच मानो तो यात्रा तो अब शुरु होती है । वहां से 2-3 कि.मी. आगे जाने पर ‘करोल’ नाम का गांव आता है और यहां पर गाड़ी छोड़ कर सारा सामान अपने साथ लेकर हम अपनी पगयात्रा शुरू करते हैं चैरा की ओर । धीरे-धीरे कदम बढ़ने लगते है गंतव्य की ओर , रास्ते के नाम पर सिर्फ 3 फ़ुट की पगडंडी थी कहीं पर सीधी कहीं पर घुमावदार । करीब 2 पहाड़ इसी पगडंडी द्वारा तय करने के बाद एक घर नज़र आने लगता है प्यासे होठों को तरलता का आभास होने लगता है क्योंकि गर्मी के मौसम होने के कारण प्यास अधिक लग रही थी । अब तक हमारे पास साथ में लाया हुआ पानी खत्म हो चुका था । उस घर के लोगों ने हम अपरीचित जनों का खुले दिल से स्वागत किया और पीने को पानी दिया । कुछ देर आराम करके फिर से चलना शुरू किया तो कुछ दूरी तय करने के बाद इस यात्रा का अंतिम आश्रय एक छोटी सी दुकान आई जहाँ पर जरूरत की कुछ चीजें ही उपलब्ध थी । हमने भी अपने सामान को टटोल कर जरूरत की सभी चीजों का जायजा लिया क्योंकि इसके बाद सफर में हमें अपने पास रखी हुई चीजों पर ही निर्भर रहना था । वहां से एक नाले के साथ-2 नीचे चलते – चलते हम “अमला विमला” खड्ड में पहुंच गए । अभी मंजिल तक पहुंचने के लिये इसी खड्ड को हमें 14 बार लांघना था । यहां पर दूरभाष से भी सम्पर्क कट जाता है और रह जाते है सिर्फ हम , प्रकृति के मनभावन नजारे और हमारे विचार जो खुले आसमां के नीचे पहाड़ों की ऊंची ऊंची चोटियों पर किसी बादल की तरह उमड़ते घुमड़ते हुए एक अद्भुत अलौकिक आनंद की ओर ले जाते हैं ।
यहां प्रकृति हर कदम पर बिल्कुल नए रंग दिखा रही थी । कहीं पर पहाड़ बहुत हरे भरे थे तो कहीं पर बस पत्थर की बनावट सी प्रतीत होती थी1उन पहाड़ो में कुछ कन्दराएं थी जो उन लोगों के लिये रहने का ठिकाना थी जो अपने पशुओं,भेड़ बकरियों को चराने के लिये कई दिनों घर से बाहर रहते हैं । इसी जगह पर एक तूफानी चक्रवात ने हमें घेर लिया और हम पत्तों की तरह लहराते हुए गिर पड़े तब यही कन्दराएं हमारा सहारा बनी । कुछ दूरी तय करने पर केले का बागीचा नजर आया क्रमबद्ध अनेक केले के पेड़ । हम इस वक्त तक 3 बार खड्ड पार कर चुके थे और पानी की धारा के साथ-2 सफर करते करते ये पहाड़, ये पानी की हलचल, चट्टाने हमारे साथी बन गए थे अब खड्ड को पार करते हुए डर नही अपितु आनन्द की अनुभूति होने लगी थी ।
यात्रा का हर पहलू रोमांच से भरपूर हो तो अपना ही आनन्द है । ऐसे ही पानी की धारा के साथ साथ सफर चलता रहा बीच में एक नज़ारा अनुपम था । वहां के स्थानीय लोगों द्वारा सिंचाई के लिये पानी को एकत्रित किया गया था और बीच में 1-2 फुट की दूरी पर पत्थर रख कर चलने के लिये रास्ता बनाया गया था । छोटे बच्चों के साथ उस स्थान पर थोड़ी कठिनाई महसूस हुई परंतु जाने क्या था कि ये नन्हे बालक इतने कठिन रास्ते पर भी मस्ती के साथ चल रहे थे शायद ये वो दैवीय शक्ति थी जिसके आगोश में हम जा रहे थे । पानी ठहराव लिये हुए दर्पण की भांति नजर आ रहा था , अपने अन्दर काफी कुछ समेटे बाहर से शांत और अन्दर से उतना व्याकुल । दोनों तरफ के गगनचुम्बी पहाड़ के साये , उस ठहरे पानी में प्रतिबिम्ब बनाए , एक दम उन्नत खड़े थे आकाश की ओर और पानी उनकी विशालता को अपने अन्दर समेटे मौन था ।
हम बस आगे बढ़ते जा रहे थे अभी प्रकृति काफी रहस्यों के उदघाटन करने वाली थी । आगे बढ़ने पर पहाड़ का अनोखा रूप मिला बस मिट्टी की रंगत सी दिखती थी नीचे पानी के बहाव से पहाड़ घिस गए थे और बीच में ऐसे प्रतीत होते थे मानों पत्थरों की चिनाई करके एक दीवार सी बनाई गई हो । एक पल में पहाड़ की टूटन का आभास होता था तो अगले पल पत्थरों के जुड़ाव का । पहाड़ ने ये रूप कैसे पाया ये सोच कर हैरानगी होती है । इंसान अपनी कृति पर कितना ही नाज़ करे परंतु प्रकृति का मुकाबला नहीं कर सकता ।
खड्ड आर पार करने का सिलसिला यूं ही चलता रहा और ऐसे ही रास्ता कटता रहा बहुत सारे स्मरणीय पलों के साथ और मंजिल के अंतिम पडाव के नज़दीक पहुँचने पर देखते हैं कि वहां फिर से केले का बगीचा है ऐसा प्रतीत हुआ मानो वहां भगवान विष्णु का साक्षात वास हो परंतु जब खेतों पर नजर डाली तो वो खाली थे शायद सुविधाओं के अभाव के कारण ऐसा था । अब अंत में जिस खड्ड को हम चट्टानों से पार करते आये थे उसे हमने एक छोटे से पुल से पार किया और पहुँच गए ‘देव माहूँनाग’ के मूल स्थान ‘चैरा’ । जिसके लिये 4 घण्टे की पगयात्रा करके आये थे ।मन्दिर का द्वार बन्द था जो अगले दिन सक्रान्ति को खुलना था । मन्दिर के साथ ही दो कमरे थे जिनका फर्श लकड़ी का था और दिवारें मिट्टी की । ये हमारा रात का आश्रय स्थल था । यह 4-5 घरों का ही गांव था जहां सुविधाओं की बहुत कमी थी फिर भी वहां के लोगों ने हमें कम्बल वगैरा दे दिये । मौसम का मिज़ाज कुछ बदला सा था अब हल्की हल्की बारिश होने लगी थी फिर भी इस जगह पर गर्मी बहुत अधिक थी । हमने साथ में लाया हुआ खाना खाया और सो गए क्योंकि सफर लम्बा था और थकान से भरा भी ।
सुबह उसी खड्ड में मुंह हाथ धोने के बाद देव दर्शन के लिये गए । मन्दिर के अन्दर गए तो देखा कि एक और चान्दी का छोटा सा द्वार है जिस पर साँप निर्मित थे। इस चान्दी के द्वार के आगे लकड़ी के खम्बों पर टिका थड़ा सा बना था जिस पर गोबर से लिपाई की गई थी। पुजारी ने बताया कि इस चान्दी के द्वार के भीतर एक गुफा है जिसमें एक गज जमीन में गाड़ी है 1 जब हमने गज के बारे में पूछा तो उन्होने बताया कि देव “माहूंनाग” और देव “धमूनीनाग” दो देवता इस खड्ड के दोनों ओर रहते थे जब और सभी देवता पहाड़ों के उपर रहने चले गए तो इन दोनों ने निर्णय लिया कि ये अपने मूल स्थान में ही निवास करेंगे । परंतु देव “धमूनीनाग” अपने निर्णय को भूल कर पहाड़ के उपर रहने चले गये तब देव “माहूंनाग” ने ये गज गाड़ कर अपने पहाड़ को उनसे भी ऊंचा कर दिया ।
ये “माहूंनाग” दानी राजा “कर्ण” हैं और कोई भी इनके द्वार से खाली नहीं जाता है ये सबकी खाली झोली भरते हैं । अनेक दम्पती संतान की चाह लिये इनके द्वार पर मन्नत मांगते हैं और चाह पूरी होने पर बकरे की बलि देते हैं । जो कोई भी सच्चे मन से शीश नवाता है उसे उस चांन्दी के दरवाजे से नाग के फुंकारने की आवाज सुनाई देती है । उस दिन एक दम्पति अपनी मन्नत पूरी होने पर बकरे की बलि देने आये थे । पूजा शुरू की गई फिर बकरे को लाया गया तो द्वार खुला । हमने भी उस गज के दर्शन किए तो हमारी कल्पना के दर्पण पर हकीकत की तस्वीर उभर आई । पूजा समाप्त होने के बाद पुजारी ने जिसे स्थानीय भाषा में “गूर” कहा जाता है देव की बातें लोगों तक पहुँचाई । उसके बाद पास में स्थित “हत्या माता” की पूजा की गई हमने अपने जीवन में पहली बार हत्या माता के बारे सुना । उन लोगों के अनुसार हत्या माता की पूजा से आप जीवन में की गई हत्या के दोष से मुक्त हो जाते हैं । फिर मन्दिर के बाहर स्थापित “मसाणू” जी की पूजा की गई जो इन पहाड़ी देवताओं के संगी साथी माने जाते हैं ।
अंत में वहां के लोगों से विदा लेकर हम अपने घर की ओर रवाना हो गए अनेक सवालों से घिरे मन के साथ कि क्या सच में कोई देव आपको संतान दे सकता है ? क्या किसी जीव की जिन्दगी इतनी सस्ती है कि आप अपने लिये उसकी बलि चढ़ा दें ? परंतु सच कहें तो देवालय में बैठ कर कोई प्रश्न नहीं उठता मन में । इंसान शून्य में विलीन हो जाता है , अंतस की गहराई में उतरने लगता है , मात्र कुछ समय के लिये ही सही अपनी सांसारिक दुनिया से दूर हो जाता है । शायद यही वो आस्था की शक्ति है जो आज के इस वैज्ञानिक युग मे भी हम इन संस्कृतियों से जुड़े हैं और बन्धे हैं भक्ति की डोर से ...............भारत जब तक इतिहास को जीता था भारत था,'इंडिया' बन,इतिहास भूलने व बिगाड़ने की पतन की राह चलने लगा !आओ मिलकर इसे बनायें- तिलक

Monday, May 17, 2010

युगदर्पण भारत जब तक इतिहास को जीता था भारत था,'इंडिया' बन,इतिहास भूलने व बिगाड़ने की पतन की राह चलने लगा !आओ मिलकर इसे बनायें- तिलक