Saturday, March 19, 2011
होली का इतिहास (बुराइयों के अंत का प्रतीक)
Monday, January 17, 2011
बेहदियनख्लाम मेघालय का जीवन्त उत्सव----------------------------विश्वमोहन तिवारी, एयर वाइस मार्शल (सेवा निवृत्त)
बेहदियनख्लाम
मेघालय का जीवन्त उत्सव
हमारा पूर्वांचल अभी तक सुन्दर रहस्यों से भरा पड़ा है। उसमें भी मेघालय मानो रहस्य को छिपाने वाले मेघों से अधिकतर आच्छादित रहता है। शायद इसीलिए मेघालय घूमने में दुहरा आनन्द आता है पहली बार तो रहस्य में गुंथे सौंदर्य का और दूसरी बार उस सौंदर्य में गुंथे रहस्य का।
भारतीय संस्कृति में जीवन में उल्लास और आनन्द लाने के लिए त्योहारों और उत्सवों की भरमार है। यह दुख की बात है कि महानगरों के लोग संस्कृति के अन्य अंगों की तरह त्योहारों और उत्सवों को या तो भुलाते जा रहे हैं या उन्हें वे अब मात्र अपने सोफे पर बैठकर कांच के पर्दे पर दिखाए जाने वाले नकली क्रिया कलापों को देखकर मनाते हैं। जिस तरह भोजन का स्वाद पर्दे पर भोजन को देखने से नहीं आ सकता, उसी तरह उत्सवों का आनन्द पर्दों पर देखने से नहीं आ सकता। संगीत का आनन्द तो टीवी के पर्दे के द्वारा लिया जा सकता है, किन्तु सावन के झूले का आनन्द! किन्तु कभी कभी हम उत्सवों में सक्रिय भाग नहीं ले सकते हैं, तब उन उत्सवों में जाकर, उनके बीच रहकर, देखने का भी एक आनन्द तो है, चाहे वह ‘सक्रिय’ द्वारा प्राप्त न हो, किन्तु सतरंगी पर्दे से अधिक हृदयग्राही होता है।
मेघालय के पूर्वी हिस्से में मुख्यतया जयंतिया जनजाति रहती है। इनका एक उत्सव है ‘बेहदियनख्लाम’। इसका भावार्थ है बीमारियों तथा गरीबी को वृक्षों तथा प्रकृति की सहायता से दूर भगाना। हजारों वर्षों से यह उत्सव प्रति वर्ष वर्षा ऋतु में खेतों में बोनी करने के बाद मनाया जाता है। जयंतिया क्षेत्र का एक प्रमुख नगर है जवई जो शिलांग से 64 किलोमीटर दूरी पर है। हमारे यहां प्रकृति के साथ एक होकर रहने की, उसके साथ उत्सव मनाने की सुदीर्घ सुस्थापित परंपरा है, जिसे महानगरी लोग पश्चिमी भोगवादी संस्कृति के संलिष्ट जीवन के दबाव में आकर भुलाते जा रहे हैं, किन्तु पूर्वांचल में वे परंपराएं अभी भी जीवन्त हैं।
अपने जयंतिया मित्र श्री रिम्बई के अनुरोध पर मैं सपत्नीक जवई पहुंचा इस उत्सव का आनन्द लेने। जैसे ही मेरी कार ने जवई में प्रवेश किया तो लोगों की चहलपहल से ही उनकी उमंग स्पष्ट दिखाई दी। लोग रंग बिरंगे कई मंजिलों वाले एक ऊंचे झांकी स्तम्भ को कंधों पर लेकर चल रहे थे। वह झांकी बहुत सुन्दर तो थी किन्तु उसमें किसी भी देवी या देवता का चित्र या मूत्र्ति नहीं थी। जुलूस एक पवित्र ताल की तरफ जा रहा था। जब हम श्री रिम्बई के घर पहुंचे तब उनके बड़े भाई तथा भाभी ने ‘खुब्लै’ ह्यअर्थात भगवान का आशीर्वाद आपके साथ रहेहृ कहकर हम लोगों का स्वागत किया। उन दोनों के चेहरों पर आतिथ्य सत्कार की खुशी चमक रही थी। जवई जैसी सुदूर जगह में रहते हुए भी श्रीमती रिम्बई बनारसी जरी की सुन्दर साड़ी पहने हुए थीं। वे हमारे साथ बैठी ही थीं कि बाहर से किसी ने आवाज दी। उन्होंने छांग अर्थात चावल से बनी हुई हल्की मदिरा का पात्र उठाया और बाहर गईं। मैं भी उत्सुकतावश साथ गया। तीन युवक एक वृक्ष की हरी भरी डालियां उनके दरवाजे पर लगा रहे थे। श्रीमती रिम्बई ने शुभकामनाओं के साथ उन्हें आधा आधा गिलास छांग दी जिसे पीने के बाद ‘खुब्लै’ कहकर वे चल दिये।
बाहर सड़क पर भीड़ बढ़ रही थी। जुलूस झांकी स्तम्भ लिए जा रहा था। पूछने पर श्री रिम्बई ने बतलाया कि खासी लोग निराकार भगवान में विश्वास करते हैं इसलिए झांकी में भगवान की मूर्ति या चित्र नहीं है। वे आगे बोले, “आज का त्योहार भगवान तथा प्रकृति से अपनी फसल की संवृद्धि की प्रार्थना का तथा दुष्ट आत्माओं से अपनी रक्षा की प्रार्थना का त्योहार है। हम लोग प्रकृति की पूजा करते हैं। वे ऐसे बहुत से कारणों को जो या तो बीमारी पैदा करते हैं, या मानसिक संताप, ‘दुष्ट आत्मा’ के अन्तर्गत अभिव्यक्त करते हैं। और उन्होंने अनुभव किया है कि प्रकृति से एकरूप होने से वे बीमारियां या संताप दूर हो जाते हैं। हजारों वर्षों से वृक्षों और वनों से अपनी समृद्धि की प्रार्थना करते हैं, जब कि पाश्चात्य संसार को वनों का महत्त्व आज उन्हें खोने के बाद मालूम हो रहा है।
तीन बज चुके थे और समारोह चार बजे से प्रारम्भ होने वाला था, इसलिए हम लोग अपने घर से निकल पड़े। रास्ते में भीड़ और उसका उत्साह कुछ वैसा ही था जैसा कि ‘पूजा’ में दुर्गा की मूर्ति विसर्जन के लिए ले जाते समय होता है या कि महाराष्ट्र में गणेश विसर्जन के समय। वह भीड़ थी आनन्द की जिसमें डूबते उतराते हम लोग बह रहे थे।
जब हम लोग उत्सव स्थल पर पहुंचे तो उस अनोखे वातावरण को देखकर मैं चकित हो गया इतने सारे लोग, इतना उत्साह, इतनी हिम्मत क्योंकि तब तक पानी भी बरसने लगा था, लेकिन कोई भाग नहीं रहा था, हां थोड़ी संख्या में छाते अवश्य खुले थे। वह पवित्र छोटा ताल चारों तरफ कई पहाड़ियों से घिरा था और लोगों के झुण्ड उन पहाड़ियों पर रंगीन फूलों के समान बिखरे दिख रहे थे। आठ झांकियां पहुंच चुकी थीं और कुछ आ रही थीं। स्पष्ट था कि कलकत्ते की दुर्गापूजा तथा मुम्बई की गणेश पूजा जैसा भ्रष्ट आधुनिकीकरण अभी जयंतिया में नहीं पहुँचा था।
चार बजे उस पवित्र ताल में, पुजारियों ने मंत्रोचार के साथ प्रवेश करते हुए उत्सव का समारम्भ किया। फिर उन्होंने लम्बे बांसों से उस ताल के पानी को पीटते हुए दुष्ट आत्माओं को भगाया। पहली झांकी वाले लोगों ने उस ताल में परिक्रमा हेतु प्रवेश किया और उनके साथ उनके समूह ने भी। वे लोग उस पानी को अपने ऊपर तो छिड़क ही रहे थे, किन्तु दूसरों पर भी डाल रहे थे और कुछ लोग तो उसमें डुबकी भी लगा रहे थे जो कि कई दूष्टियों से बड़ी हिम्मत का काम था। एक तो उस ताल में इतने अधिक आदमी थे कि उसमें पानी देखना मुश्किल था। दूसरे, सभी लोग उस घुटने घुटने पानी में तेजी से परिक्रमा लगा रहे थे। और तीसरे, उस पानी का इतना मंथन हो गया था कि वह पंकमय हो गया था। केवल दीर्घ अनुभव संपुष्ट श्रद्धा ही उन्हें इतना साहस दे सकती थी। तीन परिक्रमाओं के बाद उस झांकी स्तम्भ को लगभग दो सौ गज दूर तक छोटी सी नदी में विसर्जन हेतु ले जाया गया। पूजा की यही प्रक्रिया सभी झांकियों ने उल्लासपूर्वक मनाई। वे सारे लोग, उस पवित्र ताल में प्रवेश करते ही मानों उल्लास की ऊर्जामय तरंगों में परिणित हो जाते थे।
इतने में मैंने देखा कि किसी वृक्ष के कोई तीस फुट लम्बे तने को गरिमापूर्वक लेकर एक जुलूस उस ताल में लाया। उसे देखते ही सारे लोगों ने उनके लिए वह स्थान एकदम खाली कर दिया। बाद में, अन्य लोग उस ताल में आते गए कि जब तक वह ताल लोगों से लबालब भर नहीं गया। फिर मंत्रोच्चार के साथ उस खम्भे को ताल बीच में, येन केन प्रकारेण, लाया गया। लग रहा था कि वह खम्बा मानों विशाल और शक्तिशाली अस्त्र है जो सब लोगों की दुष्टों से रक्षा करने में सक्षम है। फिर उस शक्ति के प्रतीक को आड़ा किया गया। ताल की उस दुर्दमनीय भीड़ में यह सारे कार्य इतने अनुशासित ढंग से हो रहे थे कि मुझे बहुत अचरज हो रहा था। फिर दोनों दलों के लोगों ने उस खम्बे को आधा आधा पकड़ा और उस खम्बे के साथ रस्सा कशी शुरू हो गई। प्रत्यक्ष रूप से यह दृश्य लघु समुद्रमंथन सा लग रहा था किन्तु उनमें देवों और दानवों का विभाजन नहीं था। उसमें से विष तो तनिक भी न निकला हां आनन्द रूपी अमृत अवश्य निकल रहा था एक कलश भर नहीं वरन एक फुहारे के रूप में। मुझे लगा कि बेहदियनख्लाम के इस एक उत्सव में हमारे तीन उत्सवों बंगाल की दुर्गा पूजा, जगन्नाथ पुरी की रथ यात्रा तथा उत्तर भारत की होली का पुण्य और आनन्द समाया था। इस उत्सव में जयंतिया के कमिश्नर से लेकर किसान तक, सभी स्तर के लोग, पूरा पूरा भाग ले रहे थे।
लौटते समय मेरी पत्नी ने कहा ह्ययह सच है, साहित्यिक कल्पना नहींहृ, “ये खासी जयंतिया लोग बड़े अजीब हैं जो उस तालाब के कीचड़ में लथपथ होकर खुश हो रहे थे। मैंने कहा, “तुम जानती हो कि मेघालय में वर्ष में नौ माह वर्षा होती है, और पहाड़ी होने के बाद भी यहां वहां कीचड़ हो जाती है। जब तक यहां के रहने वाले आदमी वर्षा, तालाब, मिट्टी, कीचड़ जैसी जीवनदायिनी शक्तियों से आत्मीय सम्बन्ध स्थापित नहीं करेंगे, दुखी रहेंगे, प्रकृति के साथ एकरस नहीं होंगे, तब तक ऊपर कैसे उठेंगे! यह जल तथा मिट्टी अभी पाश्चात्य सभ्यता से प्रदूषित नहीं हुई है। इसमें स्वाभाविक औषध गुण हैं जिनका लाभ इन प्रकृति प्रेमियों को मिलता है। प्राकृतिक चिकित्सा में मिट्टी स्नान का बहुत महत्त्व है। प्रकृति की जीवनदायिनी शक्तियों से विरोध या अलगाव कैसा? यही अलगाव तो दुखों और हताशाओं को जन्म देता है। हमारी संस्कृति की यही तो शक्ति है कि वह प्रकृति से, परिवेश से हमारी आत्मीयता स्थापित करती है। हममें कत्र्तव्यों के प्रति प्रेम और निठा पनपाती है और हमारे जीवन में आनन्द और उल्लास की वर्षा करती है। जयंतिया के लोग अपनी संस्कृति की कृपा से अपनी मिट्टी की गंध और वर्षा के गहरे स्पर्श के साथ बहुत आनन्द के साथ रहते हैं।किन्तु कब तक?
ई143, सै . 21, नौएडा 201301
Thursday, December 2, 2010
खुदीराम बोस
Saturday, September 11, 2010
आत्मग्लानी नहीं स्वगौरव का भाव जगाएं, विश्वगुरु
भारत जब तक इतिहास को जीता था भारत था,
'इंडिया' बन,इतिहास भूलने व बिगाड़ने की
पतन की राह चलने लगा !
आओ मिलकर इसे बनायें- तिलक
Saturday, May 29, 2010
आस्था की डोर – चैरा
Author: सुमन'मीत' | Posted at: Thursday, May 27, 2010
मंडी
हमारी यात्रा शुरू होती है मंडी शहर से । व्यास नदी के किनारे स्थित ये मंडी शहर कुल्लू मनाली के रास्ते में ही है। मंडी से हमने अपनी यात्रा टाटा सूमों पर शुरू की। क्योंकि जिस स्थान पर हम जा रहे थे वहां छोटी कार ले जाना संभव नहीं था। यात्रा में जोखिम और कठिनाईयां भी होंगी , इसकी जानकारी हमने तभी हासिल कर ली थी जब हम चैरा घूमने का प्रोग्राम बना रहे थे। यह एक पारिवारिक यात्रा थी और हमारे साथ 4 छोटे बच्चे भी थे जिनकी आयु 5 से 13 तक की थी। सफर शुरू हुआ , धीरे धीरे गंतव्य की ओर कदम बढ़ने लगे । करीब 30 कि.मी. के सफर के बाद बहुत ही सुन्दर गांव आया “चैल चौक” यहाँ पर चील के हरे भरे जंगल दिखे तो शिथिल पड़ी आँखों को तरलता का भान हुआ । वहाँ पर चाय पीकर आगे की यात्रा आरम्भ की । धीरे धीरे गाड़ी उस पहाड़ी रास्ते पर चल रही थी और हमारी आँखें खिड़की से बाहर प्राकृतिक सुन्दरता की गलियों में विचरण कर रही थी । गर्मियों के दिन थे सूरज अपने पूरे सरूर पर था परंतु कहीं पर वृक्ष इतने घने थे कि सूरज की किरणें भी उनसे रास्ता मांगती प्रतीत होती थी । आगे एक के बाद एक ठहराव आते गये जिनमें चुराग,पांगणा,चिंडी आदि प्रमुख हैं । चिन्डी का रेस्ट हाऊस एक ऐसा आराम गृह है जो शरीर के साथ साथ रूह को भी सकून देता है क्योंकि यहां चारों ओर देखने पर नैसर्गिक सुन्दरता नज़र आती है । अब धीरे धीरे गंतव्य से दूरी घटने लगी थी और मंजिल को देखने की चाहत बढ़ने लगी थी क्योंकि अभी तक वो अनदेखा स्थान सिर्फ हमारी कल्पनाओं में था और जैसे कल्पना का पंछी झट से उड़ कर गगन को छू लेना चाहता है वैसे ही हमारा मन भी उस स्थान से जुड़े पहलुओं को जानने के लिये बेचैन था । अंत में हम करसोग पहुँच जाते हैं और वहां पर स्थित ममलेश्वर महादेव और कामाक्षा देवी के दर्शन करते हैं । सच मानो तो यात्रा तो अब शुरु होती है । वहां से 2-3 कि.मी. आगे जाने पर ‘करोल’ नाम का गांव आता है और यहां पर गाड़ी छोड़ कर सारा सामान अपने साथ लेकर हम अपनी पगयात्रा शुरू करते हैं चैरा की ओर । धीरे-धीरे कदम बढ़ने लगते है गंतव्य की ओर , रास्ते के नाम पर सिर्फ 3 फ़ुट की पगडंडी थी कहीं पर सीधी कहीं पर घुमावदार । करीब 2 पहाड़ इसी पगडंडी द्वारा तय करने के बाद एक घर नज़र आने लगता है प्यासे होठों को तरलता का आभास होने लगता है क्योंकि गर्मी के मौसम होने के कारण प्यास अधिक लग रही थी । अब तक हमारे पास साथ में लाया हुआ पानी खत्म हो चुका था । उस घर के लोगों ने हम अपरीचित जनों का खुले दिल से स्वागत किया और पीने को पानी दिया । कुछ देर आराम करके फिर से चलना शुरू किया तो कुछ दूरी तय करने के बाद इस यात्रा का अंतिम आश्रय एक छोटी सी दुकान आई जहाँ पर जरूरत की कुछ चीजें ही उपलब्ध थी । हमने भी अपने सामान को टटोल कर जरूरत की सभी चीजों का जायजा लिया क्योंकि इसके बाद सफर में हमें अपने पास रखी हुई चीजों पर ही निर्भर रहना था । वहां से एक नाले के साथ-2 नीचे चलते – चलते हम “अमला विमला” खड्ड में पहुंच गए । अभी मंजिल तक पहुंचने के लिये इसी खड्ड को हमें 14 बार लांघना था । यहां पर दूरभाष से भी सम्पर्क कट जाता है और रह जाते है सिर्फ हम , प्रकृति के मनभावन नजारे और हमारे विचार जो खुले आसमां के नीचे पहाड़ों की ऊंची ऊंची चोटियों पर किसी बादल की तरह उमड़ते घुमड़ते हुए एक अद्भुत अलौकिक आनंद की ओर ले जाते हैं ।
यहां प्रकृति हर कदम पर बिल्कुल नए रंग दिखा रही थी । कहीं पर पहाड़ बहुत हरे भरे थे तो कहीं पर बस पत्थर की बनावट सी प्रतीत होती थी1उन पहाड़ो में कुछ कन्दराएं थी जो उन लोगों के लिये रहने का ठिकाना थी जो अपने पशुओं,भेड़ बकरियों को चराने के लिये कई दिनों घर से बाहर रहते हैं । इसी जगह पर एक तूफानी चक्रवात ने हमें घेर लिया और हम पत्तों की तरह लहराते हुए गिर पड़े तब यही कन्दराएं हमारा सहारा बनी । कुछ दूरी तय करने पर केले का बागीचा नजर आया क्रमबद्ध अनेक केले के पेड़ । हम इस वक्त तक 3 बार खड्ड पार कर चुके थे और पानी की धारा के साथ-2 सफर करते करते ये पहाड़, ये पानी की हलचल, चट्टाने हमारे साथी बन गए थे अब खड्ड को पार करते हुए डर नही अपितु आनन्द की अनुभूति होने लगी थी ।
यात्रा का हर पहलू रोमांच से भरपूर हो तो अपना ही आनन्द है । ऐसे ही पानी की धारा के साथ साथ सफर चलता रहा बीच में एक नज़ारा अनुपम था । वहां के स्थानीय लोगों द्वारा सिंचाई के लिये पानी को एकत्रित किया गया था और बीच में 1-2 फुट की दूरी पर पत्थर रख कर चलने के लिये रास्ता बनाया गया था । छोटे बच्चों के साथ उस स्थान पर थोड़ी कठिनाई महसूस हुई परंतु जाने क्या था कि ये नन्हे बालक इतने कठिन रास्ते पर भी मस्ती के साथ चल रहे थे शायद ये वो दैवीय शक्ति थी जिसके आगोश में हम जा रहे थे । पानी ठहराव लिये हुए दर्पण की भांति नजर आ रहा था , अपने अन्दर काफी कुछ समेटे बाहर से शांत और अन्दर से उतना व्याकुल । दोनों तरफ के गगनचुम्बी पहाड़ के साये , उस ठहरे पानी में प्रतिबिम्ब बनाए , एक दम उन्नत खड़े थे आकाश की ओर और पानी उनकी विशालता को अपने अन्दर समेटे मौन था ।
हम बस आगे बढ़ते जा रहे थे अभी प्रकृति काफी रहस्यों के उदघाटन करने वाली थी । आगे बढ़ने पर पहाड़ का अनोखा रूप मिला बस मिट्टी की रंगत सी दिखती थी नीचे पानी के बहाव से पहाड़ घिस गए थे और बीच में ऐसे प्रतीत होते थे मानों पत्थरों की चिनाई करके एक दीवार सी बनाई गई हो । एक पल में पहाड़ की टूटन का आभास होता था तो अगले पल पत्थरों के जुड़ाव का । पहाड़ ने ये रूप कैसे पाया ये सोच कर हैरानगी होती है । इंसान अपनी कृति पर कितना ही नाज़ करे परंतु प्रकृति का मुकाबला नहीं कर सकता ।
खड्ड आर पार करने का सिलसिला यूं ही चलता रहा और ऐसे ही रास्ता कटता रहा बहुत सारे स्मरणीय पलों के साथ और मंजिल के अंतिम पडाव के नज़दीक पहुँचने पर देखते हैं कि वहां फिर से केले का बगीचा है ऐसा प्रतीत हुआ मानो वहां भगवान विष्णु का साक्षात वास हो परंतु जब खेतों पर नजर डाली तो वो खाली थे शायद सुविधाओं के अभाव के कारण ऐसा था । अब अंत में जिस खड्ड को हम चट्टानों से पार करते आये थे उसे हमने एक छोटे से पुल से पार किया और पहुँच गए ‘देव माहूँनाग’ के मूल स्थान ‘चैरा’ । जिसके लिये 4 घण्टे की पगयात्रा करके आये थे ।मन्दिर का द्वार बन्द था जो अगले दिन सक्रान्ति को खुलना था । मन्दिर के साथ ही दो कमरे थे जिनका फर्श लकड़ी का था और दिवारें मिट्टी की । ये हमारा रात का आश्रय स्थल था । यह 4-5 घरों का ही गांव था जहां सुविधाओं की बहुत कमी थी फिर भी वहां के लोगों ने हमें कम्बल वगैरा दे दिये । मौसम का मिज़ाज कुछ बदला सा था अब हल्की हल्की बारिश होने लगी थी फिर भी इस जगह पर गर्मी बहुत अधिक थी । हमने साथ में लाया हुआ खाना खाया और सो गए क्योंकि सफर लम्बा था और थकान से भरा भी ।
सुबह उसी खड्ड में मुंह हाथ धोने के बाद देव दर्शन के लिये गए । मन्दिर के अन्दर गए तो देखा कि एक और चान्दी का छोटा सा द्वार है जिस पर साँप निर्मित थे। इस चान्दी के द्वार के आगे लकड़ी के खम्बों पर टिका थड़ा सा बना था जिस पर गोबर से लिपाई की गई थी। पुजारी ने बताया कि इस चान्दी के द्वार के भीतर एक गुफा है जिसमें एक गज जमीन में गाड़ी है 1 जब हमने गज के बारे में पूछा तो उन्होने बताया कि देव “माहूंनाग” और देव “धमूनीनाग” दो देवता इस खड्ड के दोनों ओर रहते थे जब और सभी देवता पहाड़ों के उपर रहने चले गए तो इन दोनों ने निर्णय लिया कि ये अपने मूल स्थान में ही निवास करेंगे । परंतु देव “धमूनीनाग” अपने निर्णय को भूल कर पहाड़ के उपर रहने चले गये तब देव “माहूंनाग” ने ये गज गाड़ कर अपने पहाड़ को उनसे भी ऊंचा कर दिया ।
ये “माहूंनाग” दानी राजा “कर्ण” हैं और कोई भी इनके द्वार से खाली नहीं जाता है ये सबकी खाली झोली भरते हैं । अनेक दम्पती संतान की चाह लिये इनके द्वार पर मन्नत मांगते हैं और चाह पूरी होने पर बकरे की बलि देते हैं । जो कोई भी सच्चे मन से शीश नवाता है उसे उस चांन्दी के दरवाजे से नाग के फुंकारने की आवाज सुनाई देती है । उस दिन एक दम्पति अपनी मन्नत पूरी होने पर बकरे की बलि देने आये थे । पूजा शुरू की गई फिर बकरे को लाया गया तो द्वार खुला । हमने भी उस गज के दर्शन किए तो हमारी कल्पना के दर्पण पर हकीकत की तस्वीर उभर आई । पूजा समाप्त होने के बाद पुजारी ने जिसे स्थानीय भाषा में “गूर” कहा जाता है देव की बातें लोगों तक पहुँचाई । उसके बाद पास में स्थित “हत्या माता” की पूजा की गई हमने अपने जीवन में पहली बार हत्या माता के बारे सुना । उन लोगों के अनुसार हत्या माता की पूजा से आप जीवन में की गई हत्या के दोष से मुक्त हो जाते हैं । फिर मन्दिर के बाहर स्थापित “मसाणू” जी की पूजा की गई जो इन पहाड़ी देवताओं के संगी साथी माने जाते हैं ।
अंत में वहां के लोगों से विदा लेकर हम अपने घर की ओर रवाना हो गए अनेक सवालों से घिरे मन के साथ कि क्या सच में कोई देव आपको संतान दे सकता है ? क्या किसी जीव की जिन्दगी इतनी सस्ती है कि आप अपने लिये उसकी बलि चढ़ा दें ? परंतु सच कहें तो देवालय में बैठ कर कोई प्रश्न नहीं उठता मन में । इंसान शून्य में विलीन हो जाता है , अंतस की गहराई में उतरने लगता है , मात्र कुछ समय के लिये ही सही अपनी सांसारिक दुनिया से दूर हो जाता है । शायद यही वो आस्था की शक्ति है जो आज के इस वैज्ञानिक युग मे भी हम इन संस्कृतियों से जुड़े हैं और बन्धे हैं भक्ति की डोर से ...............भारत जब तक इतिहास को जीता था भारत था,'इंडिया' बन,इतिहास भूलने व बिगाड़ने की पतन की राह चलने लगा !आओ मिलकर इसे बनायें- तिलक